सुन लो मनुहार
हे सागर!
सुन लो मनुहार।
विनती तुम्हे बारम्बार।।
सरल नही है।
बनना सागर।।
विराट गहराई।
सबको आत्मसात करने की गुण।।
अनंत है गहराई।
अनगिनत नदियां तुम में समाई।।
धीर है, गंभीर है।
विशालकाय विस्तार।।
उफनता है,सिकुड़ता भी है।
स्वयं में औरों को मिलान का।।
जीवनदायनी नीला।
खरापन नीर तेरा।।
शक्ति अपार,समेटे भंडार।
असीमित ऊर्जा स्वयं में लपेटे।।
तुम अथाह हो!
गहराई किसे पता है?
सम्मोहित करती लहरें।
राज छुपा रखें है गहरे।।
उठते जवार।
बेझिल हो उठती है चट्टान।।
चिरकाल हुआ था मंथन।
हलहाल ग्रहण किए थे अवधूत।।
नेक तुम्हारा इरादा।
दृढ़ इच्छा है मजबूत।।
हे सागर!
विनती तुम्हें बारम्बार।।
अभय सिंह
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