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सुन लो मनुहार

हे सागर! सुन लो मनुहार। विनती तुम्हे बारम्बार।। सरल नही है। बनना सागर।। विराट गहराई। सबको आत्मसात करने की गुण।। अनंत है गहराई। अनगिनत नदियां तुम में समाई।। धीर है, गंभीर है। विशालकाय विस्तार।। उफनता है,सिकुड़ता भी है। स्वयं में औरों को मिलान का।। जीवनदायनी नीला। खरापन नीर तेरा।। शक्ति अपार,समेटे भंडार। असीमित ऊर्जा स्वयं में लपेटे।। तुम अथाह हो! गहराई किसे पता है? सम्मोहित करती लहरें। राज छुपा रखें है गहरे।। उठते जवार। बेझिल हो उठती है चट्टान।। चिरकाल हुआ था मंथन। हलहाल ग्रहण किए थे अवधूत।। नेक तुम्हारा इरादा। दृढ़ इच्छा है मजबूत।। हे सागर! विनती तुम्हें बारम्बार।।                         अभय सिंह  

हिम्मत मत हार।

हिम्मत मत हार। कठिन हो गर डगर।। कोशिश कर बारंबार। घबराकर जीवन की राहों से।। चाहे टकराना पड़े। दुर्गम, कंटीली राहों से।। जो सहस्र बार गिरकर उठता है। वो निश्चित मंजिल फतह  कर पाता है।। सदैव नतमस्तक करता है "जग" उस नर को। जिसमें विनीत संग शौर्य रहे।। उर में उसके करुणा का भंडार रहे। दया, क्षमा का जिसमें नीर बहे।। चुनौतियों को जो स्वीकार करें। परिस्थितियां जिसका "हार" बने।। तू अतुलित बलशाली है। जो डिगा हिमालय सकता है।। उसका रथ आखिर कौन रोक सकता है? जो ठान लेता है  विजय सदैव ही होता है।। दृढ़ निश्चय कर ले तू मन से। सिंधु पीछे हट सकता है।। आने वाले उस महान क्षण से पहले। जीवन में कुछ तय कर जाना है।। कठिन समर है जीवन भी। धैर्यवान कहां घबराता है।। वो डटे रहता है,नहीं हटा। अनगिनत विघ्न बाधाओं से।। जब तक है अंतिम सांस। सतत तुम प्रयास करो।।

हमारा आर्यावर्त... क्यों जा रहा है गर्त?

हमार आर्यावर्त। क्यों जा रहा है गर्त? पूछ रही है नारी। कब तक बर्बरता जारी? जीना यहां मुस्किल है। दानवों से सहम जाता दिल।। शासक बने लाचार एवं मूकदर्शक। कोशिश भी नहीं करता उचित भरसक।। पीर अत्यंत दु:खदाई है। इंसानियत की भेष में।। ना जाने किस मोड़ पर। घात लगाकर बैठा वो कसाई है।। इंसानियत दम तोड़ रही है। अपनों से इस कदर मुंह मोड़ रही है।। मौन हो कर देख रहे हैं। चीर खींच रहा दुशासन।। आंसू भी सूख गए हैं। उम्मीद भी टूट गई है।। वक्त नहीं है अब इन। नयनों से नीर बनाने का।। गया वो समय अपनी। पीर दुनिया को बतलाने का।। उठो ,जागो लो काली रूपी अवतार। क्षण में  दानवों का कर दो तुम संहार।।